Natasha

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तुम आज़ाद हो


यह है मेरी योजना। क्‍या आप इसे पूरा करने में मेरी सहायता करेंगे? मैं भी कैसी बात कर रहा हूँ। अरे आप तो सहायता कर ही रहे हैं” - इतना कह ऑफिसर ने अन्‍वेषक की दोनों बाँहें पकड़ उसे एकटक देख अपनी भारी साँसें छोडी। 

अन्‍तिम वाक्‍य उसने इतने जोर से कहा था कि सैनिक और सजायाफ्‍ता भौंचक हो उसे देखने लगे थे हालाँकि उनके पल्‍ले कुछ पड़ा नहीं था, लेकिन उन्‍होंने खाना रोक दिया था और मुँह के कौर को चबाते अन्‍वेषक को देखने लगे थे।

अन्‍वेषक के मन में अपने उत्तर को ले प्रारम्‍भ से ही कोई सन्‍देह नहीं था, उसे जीवन में इतने अनुभव हो चुके थे कि किसी भी प्रकार की अनिश्‍चितता का कोई प्रश्‍न ही उठता था, 

वह सज्‍जन और निडर था। इसके बावजूद सैनिक और सजायाफ्‍ता के सामने वह उतनी देर तक रुका रहा जब तक उसने एक लम्‍बी साँस भीतर लेकर छोड़ नहीं दी। अन्‍त में उसने कहा, जो उसे कहना था, “नहीं।” ऑफिसर ने सुन कई बार जल्‍दी-जल्‍दी आँखें झपकाईं, लेकिन उन्‍हें हठाया नहीं। 

“क्‍या आप चाहते हैं कि मैं अपनी बात विस्‍तार से आपके सामने रखूँ।” अन्‍वेषक ने प्रश्‍न किया। ऑफिसर ने बिना कुछ कहे सिर हिला दिया। “मैं आपके इस दण्‍ड-विधान से कतई सहमत नहीं हूँ”, अन्‍वेषक ने अपनी बात शुरू की, “प्रारम्‍भ से ही जब 

आपने मुझे विश्‍वास में लेना प्रारम्‍भ किया उसके पहले से यह तो स्‍वाभाविक ही है कि मैं विश्‍वासघात नहीं करूँगा- मैं तो प्रारम्‍भ से ही यह सोचकर हैरान था कि इसे रोकना तो मेरा कर्त्त्‍ाव्‍य बनता ही है और क्‍या मेरे प्रयासों से मुझे कुछ सफलता मिलेगी भी। मुझे यह तो ज्ञात है कि इस सम्‍बन्‍ध में किससे बात की जानी चाहिए। 

स्‍वाभाविक है कमाण्‍डेंट से। आपने इस तथ्‍य को और स्‍पष्‍ट कर दिया है, मेरा अपना निर्णय जहाँ का तहाँ है लेकिन मेरे प्रति व्‍यक्‍त किए गए आपके विश्‍वास से मैं अभिभूत हूँ, लेकिन मेरा निर्णय उससे कतई प्रभावित नहीं हुआ है।”

खामोश खड़ा ऑफिसर मशीन की ओर घूमा और एक राड को पकड़ झुककर डिजाइनर को कुछ इस अन्‍दाज में देखने लगा, जैसे परख रहा हो, कि सब कुछ ठीक है या नहीं। उधर सैनिक और सजायाफ्‍ता के बीच कुछ तालमेल बैठ गया था 

और सजायाफ्‍ता सैनिक को कुछ इशारा कर रहा था, हालाँकि पट्टे के कारण उसका हिलना-डुलना पर्याप्‍त कठिन था। सैनिक उसके सिर के पास झुका और सजायाफ्‍ता ने फुसफुसाकर उससे कुछ कहा तो सैनिक ने सुनकर उत्तर में सिर हिला दिया।

अन्‍वेषक ने ऑफिसर के पास जाकर कहा, “अभी आपको इसका ज्ञान नहीं है कि मैं क्‍या करने वाला हूँ। इस दण्‍ड-प्रक्रिया के बारे में निश्‍चित रूप से मैं कमाण्‍डेंट को अपनी राय दूँगा लेकिन कान्‍फ्रेंस में नहीं, वरन्‌ एकान्‍त में, कान्‍फ्रेंस होने तक मैं रुकने वाला भी नहीं हूँ, मैं तो कल सुबह ही चला जाऊँगा, कम से कम अपने जहाज पर तो पहुँच ही जाऊँगा।”



ऑफिसर को देखकर ऐसा लग नहीं रहा था कि उसने एक शब्‍द भी सुना है। “तो आपको यह विधि विश्‍वसनीय नहीं लगती”, उसने अपने आप से कहा और मुस्‍करा दिया जैसे बूढ़े बच्‍चों की बातों पर मुस्‍करा कर अपना काम करते रहते हैं।



“तो वह समय आ ही गया”, उसने लम्‍बी-सी साँस लेते हुए कहा और एकाएक अन्‍वेषक को चमकती आँखों के साथ देखा, जिनसे चैलेन्‍ज के साथ सहयोग की आकाँक्षा स्‍पष्‍ट झाँक रही थी। “किस बात का समय?” अन्‍वेषक ने असहज हो पूछा, लेकिन उसे कोई उत्तर नहीं मिला।



“तुम आजाद हो”, ऑफिसर ने सजायाफ्‍ता से स्‍थानीय बोली में कहा। उस आदमी को अपने कानों पर विश्‍वास ही नहीं हुआ। “हाँ, मैंने यही कहा है, तुम आजाद हो”, ऑफिसर ने दोबारा कहा। सजायाफ्‍ता का चेहरा पहली बार अचानक चमक उठा। 



क्‍या यह सच है? क्‍या यह ऑफिसर की कहीं कोई सनक मात्र तो नहीं है, जो किसी भी पल बदल भी तो सकती है? क्‍या विदेशी अन्‍वेषक ने उसे क्षमा दिलवा दी है? आखिर हुआ क्‍या है? उसके चेहरे पर लिखे प्रश्‍न कोई भी पढ़ सकता था। 



लेकिन अधिक समय तक वे वहाँ नहीं रहे। बहरहाल हुआ कुछ भी हो, वह आजाद होना चाहता था अतः छूटने की कोशिश करने लगा, जितना भी हेरो उसे छूट दे रहा था।



“तुम तो मेरे पट्टों को ही फाड़ डालोगे”, ऑफिसर चिल्‍लाया, “आराम से लेटे रहो! हम जल्‍दी ही उन्‍हें ढीला कर देंगे”, और सैनिक को सहायता करने के लिए इशारा कर स्‍वतः खोलने में जुट गया। 

सजायाफ्‍ता मन ही मन में हँसते हुए सिर हिलाते हुए कभी ऑफिसर को, फिर दाहिनी ओर सिर घुमाकर सैनिक को और अन्‍वेषक की ओर देखे जा रहा था।

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